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जसुमति-नंद-दुलारौ, नयौ ब्रज कौ रखवारौ।।
गई रही पनघट, लै कें घट, भरि ज्यों सिर पै धारौ।
औचक आय उलटि घूँघट पट, लै गुलाल मुख मारौ,
अरी! रंग मोपै डारौ।।
पुनि कर पकरि झटकि अँचरा चट, खींचौ कटि कौ नारौ।
दै कर-ताल हँसौ ग्वालन सँग, पचरँग अम्बर फारौ,
मेरौ सब गात निहारौ।।
भाजि गयौ न लयौ बदलौ, मैंने झट पटचीर सँभारौ।
तब तें छाय रहृो मनमोहन, ‘किंकर’ प्रानपियारौ,
दृगन तें टरत न टारौ।।