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मोसों जिनि अटकै रे छबीले छैल, मेरे सिर पै गगरि जिनि रोकै गैल।।
आगे गई तिनसें कहा नातो, मोही सों अटकत मदमातौ।
नैक न दाग लगौ उनके अँग, ना तैने रोकी चली जाति मग,
मोही सों अनोखे ने ठानी फैल।।
ए रे लँगर मोपै रंग जिनि डारौ, मति घूँघट पिचकारिन मारौ।
नई रे चुनरि मैंने अबही रँगाई, सैयाँ हमारे ने देखिहू न पाई,
सो तो तैने बिगारी होरी खेलि।।
ठाढ़े रहौ घर धरि आऊँ गगरी, इनहीं पाइन मैं तो आवति डगरी।
मनमानी तोसों खेलौंगी होरी, मौज फागुन जामें काहे की चोरी,
मैं तो धोय के बहाऊ सारे जिय के मैल।।