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कान्ह तुम करत अटपटे ख्याल, मुख सों मलत गुलाल।।
बाट चलत मों सों करत मसखरी, डारत रंग गुलाल।।
प्रात होत सब घर सों निकसीं, जल भरने ब्रजबाल।
आय अचानक घेरि लई मग, हम हारी सब बाल।।
बरजोरी करत खेलत है होरी, देत हाथ की ताल।
‘चिन्तामणि’ के मन अति भावत, कौतुक करत गुपाल।।