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सखि या घूँघट की लटक में, किन मारी पिचकारी।।
जिन मारी ते सनमुख अइयो, ना तरू दैहों मैं गारी।
‘चन्द्रसखी’ भजु बालकृष्ण छबि, तुम जीते हम हारी।।