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दशरथ-सुत राज दुलारे, खिलन कैसें पाऔगे होरी।।
घर-घर तें बनिता बनि आईं, कोऊ साँवरि कोऊ गोरी।
कोऊ गुलाल अतर रँग छिरकत, कोऊ मलत मुख रोरी।।
सीता सैन दई सखियन कां, झुंड झुंड जुरि दौरीं।
पकरौ री कौशल्या-सुत कों, लेउ पीताम्बर छोरी।।
फगुआ लिये बिन जान न दैहों, अपने बिरन की सौंरी।
कै लछिमन की ओर लैउँगी, तौ मैं जनक किशोरी।।
फगुआ दियौ है मँगाय राम जू, मेवा भरि भरि झोरी।
‘तुलसीदास’ धनि धनि राजा दशरथ, चिरजीवौ यह जोरी।।