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आयौ फागुन मास सखी, उमग्यौ मन मेरौ।।
चलौ री सखी मिलि नन्द महरि कें, कृष्ण कृष्ण कहि टेरौ।
जो न मिलै तो चलौ कुंजन में, राह बाट सब घेरौ,
करौ वाहि अपनों चेरौ।।
छोटौ जानि न उरझो वासें, बल को अधिक घनेरौ।
मथुरा कौ वह राज करत है, है ठाकुर ब्रज केरौ,
दही नित खात सबेरौ।।
पहिलें जंत्र मंत्र करि लीजै, फिरि कारे कों छेड़ौ।
ऐसौ न होइ पलटि डसि जावे, वामें विष है घनेरौ,
करे निसिवासर फेरौ।।
महुअरि नाद लियें सब सखियाँ, करहु चौतरफा फेरौ।
आदि गुरू कौ नाम बतावौ, करि करि जतन घनेरौ,
सखिन मिलि जादू गेरौ।।
रस बस ह्नै राधे मोहन के, उर अन्तर में हेरौ।
बन्द पिटारे भये दृगन के, ‘सूर’ सुजस बहुतेरौ,
भयो मन माहि उजेरौ।।