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केशव काहे कौं, तरसावै, हमें खान पान न सुहावै।।
कुआंर मास की पुरनिमां कों, लीला रास रचावै।
बंसी घोर सुनाई सबन कों, आधी रात बुलावै।।
व्रिन्दावन तेरी पुण्य भूमि की, महिमा को कहि पावै।
रास रचौ जमुना के तट पर, गोपिन संग नवाचै।।
बीच रास के हरि उठ धाए, गोपिन कौ समुझावै।
तुम जइओ सब अपने घरन कां, नाहक कल लग जावै।।
सुनि बिछुरन हरि के समीप सौं, गोपी रूदन मचावै।
लीलाधारी युक्ति विचारी, राह चलत छुपि जावै।।
लखि यह दृश्य सभी पछतामैं, का मुंह लै घर जावै।
आरतवानी सुनि गोपिन की, आइ के प्रीति दिखावैं।।