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हो हो कहि दौरीं, अहो ब्रज बाल।
भरि भरि घट बंशीबट के तट, दै दै ओट तमाल।।
इत सुगन्ध लियें दीनबन्धु, उत भरत भामिनी भाल।
पियत पियूष चन्द लागत मानों, खुले है व्याल के जाल।।
इत उझकत पियरौ पट पहिरैं, मानौं फूले कंज सनाल।
मुख देखत ऐसी लागति मानों, बुझि बरि उठत मसाल।।
‘विद्याराम’ दृगन देखत ही, मृगन भूलि गई चाल।
खेलि फाग हिलि मिलि रस बस करि, घर आये नँदलाल।।