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दधि बेचन कैसें जाउँ, गोकुल धूम मची है।
फागुन मास कौ दृश्य अनोखौ, सब ब्रज एक मयी है।।
नहिं कोऊ ऊँच नीच कों समुझे, भेद की गेंद बनी है।
कान्हा ग्वालन बीच मगन है, प्रेम की डोर बँधी है।।
एक लँग ग्वाल एक लँग गोपी, दुहुँ बिच खूब अड़ी है।
कृष्ण कन्हैया लखै तमासौ, रँग की कींच मची है।।
साँझ भई सब घर कौं लौटे, जसुमति द्वार खड़ी हैं।
सबकों एक रूप में पावत, छाती उमँगि उठी है।।
भाव एकता घर घर छायौ, सबकी एक रुची है।
धन्य भाग या गोकुल नगरी, हरि लीला सँचरी है।।