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रँग डारौंगी वाही पै जाने तोर्यौ है धनुक,
सुनि आई री आजु नई होरी की भनक।।
करि श्रृंगार चलीं सब बनिता, कोऊ अबीर कोउ अरगजा मलत।
खेलत राम जानकी के सँग, उत आवत पिचकारी की सनक।।
एक कहै रँग डारों लखन पै, एक कहै या खिलाड़ी पै तनक।
एक उमँगि मुख मलत लाल कौ, एक हँसै दै तारी की ठनक।।
जो आनन्द मचौ मिथिलापुर, शेष शारदा बरन ना सकत।
‘तुलसीदास’ धनि धनि राजा दशरथ, धन्य धन्य मिथिलेश जनक।।