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बृजराज आज खेलत बसन्त, जिमि अगम निगम गावें अनन्त।।
सब गोरस मटुकी शीश धारि, बनि आई बन करिकें सिंगार।
लै संग सखा बृजपति कुमार, सब पोटलईं ब्रज गोप नारि।।
कोई मीजै मुख लै लै गुलाल, कोई मटुकि लई कोई कंठमाल।
कोई केसर लेपन करत भाल, लखि हँसत परस्पर नन्दलाल।।
कोई तारी देत गारी सुनाय, कोई तन दुकूल लीन्हो छिपाय।
कोई सैन देत कर ढ़प बजाइ, कोई विनती करत सिर नाइ नाइ।।
ब्रज गोप वधुन संग करि विहास, सब मुदित गये निज निज अवास।
नित कानन या विधि अति हुलास, गावत वसंत मुख ‘हरिविलास’।।