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रंग डारत लाज न आई, नन्दजी के कुँवर कन्हाई।।
पी पी छाछ भए मतवारे, महि मई धूम मचाई।
गुलचे खाय भूल गए सब, करन लगे ठकुराई,
सखि वाकों शर्म न आई।।
हाथ लकुटिया काँधे कमरिया, बन बन धेनु चराई।
जात अहीर सदा ही जानत, करन लगे ठकुराई,
छलीं जाने ब्रज कीं लुगाईं।।
ऊखल के संग बाँध जसोदा, बेलन मार दिलाई।
वे दिन अपने भूलि गए सब, करन लगे ठकुराई,
सखी कैसा ढीठ कन्हाई।।
पार परोसन संग की सहेली, पांव पड़त सब धाईं।
”चन्द्रसखी“ भजु बालकृष्ण छबि, चरण कमल बलि जाई,
बनी रहे कृष्ण मिताई।।