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घर अँगना न सुहावै, पिया बिन मोहि न भावै।।
दीपक जोइ कहा करुँ सजनी, पिय परदेश रहावै।
सूनी सेज जहर ज्यों लागे, सिसक सिसक जिय जावै,
नैन निदिया नहिं आवै।।
कबकी जगी, मैं मग जोऊँ, निस दिन विरह सतावै।
कहा कहूं कछु कहत न आवे, हियरो अति अकुलावै,
हरी कब दरश दिखावै।।
ऐसो है कोई परम सनेही, तुरत सँदेसो लावै।
बा बिरियां कब हाँसी मोकों, हरि हंसि कंठ लगावै,
‘‘मीरा’’ मिल होरी गावै।।