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नाहक सैया मोहि गरवा लगावत, मैं तो उमरिया की थोरी।।
मैं भय खाय हाय बहु विधि तें, विनती करों कर जोरी।।
फागुन-गुन मन एक न मानत, अंग अंग झकझोरी।।
अधर-सुधा रस लैन झुके लखि, मैं बैठी मुख मोरी।।
झपटि लपटि गहि नैंक रिसाने, चूमि लियौ बरजोरी।।