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होरी खेलत विपिन बिहारी, लियें रँग की पिचकारी।।
ग्वाल-बाल लीन्हें रँग-भीनें, बेणु बजावत प्यारी।
ताल मृंदग बीन ढफ बाजत, नाचत दै दै तारी,
मुदित मन गिरिवरधारी।।
करि श्रंगार सकल बनि आईं,घर घर तें ब्रज नारी।
सैन दई घनश्याम सखन कों,पकरौ गोप-कुमारी,
बात नहिं जाति हमारी।।
रंग गुलाल ग्वाल लै धाये, सब बनिता रँग डारीं।
लपटि झपटि पट पकरि सखा सब, देत फाग की गारी,
निरखि विहँसत बनवारी।।
कोऊ कहै मेरौ हरवा टूटौ, अरू मेरी अँगिया फारी।
‘हरिबिलास’ हरि-फाग अनोंखौ, हरि लई लाज हमारी,
सदन सब तजौ पियारी।।