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जा सों बिन होरी खेलैं न जाऊँगी,
जाने मेरी चुनरी की कीन्ही है कैसी कुगति।।
मटकि मटकि भोंहैं मटकावै, कबहुँ दृगन के भाव बतावै।
ताहू पै अति मृदु मुसकावै, याही भाँति सारे जग कों ठगत।।
जो लों सखी बदलौ न चुकाऊँ, तो लों सखी अन्न-जल न पाऊँ।
ऐसे ढीठ कों नाच नचाऊँ, देखै तमासौ सारौ जगत।।
जौ इततें उतमें उऐ भानू, तौ याकी पगिया में रंग मैं सानू।
‘नारायण’ जाकी एक न मानू, ऐसो कहा मेरौ बाप लगत।।