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मैं तो नाहीं नाहीं करति रही, पिचकारी मेरें काहे कों दई।।
सूआ सारी जरद किनारी, अबहीं मोल लई।।
तुम पिचकारी कान्हा तकि तकि मारौ, मो पै न जाति सही।।
जाही सों घर-बाहिर कबहूँ, पग नहिं देत मही।।
सासु ननद मेरी शोर करैंगी, काहे को अकेली गई।
अब अपने घर जाउ ‘आनन्दघन’ जो कछु भई सो भई।।