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काम प्रताप बड़ाई, कहत कछु बनि नहीं आई।।
कोप भवन में त्रिया रिस सुनि कें, गये दशरथ सकुचाई।
केहि कारण रानी रिसिआनी, पूछत बार बार समुझाई,
कहौ प्रिय मन चित लाई।।
अनहित तोर प्रिया किन कीन्हों, केहि यम चाहै बुलाई।
कहु केहि रंकहि करौं नरेशा, मागौ जो मन भाई,
दीन प्रभु सब प्रभुताई।।
माँगि माँगि नित कहत पिया तुम, कबहुँ न बात निबाही।
द्वै वरदान देन कहे मोकौं, तिनहूँ महँ सकुचाई,
कहौ कोऊ का पतियाई।।
द्वै के चारि माँगि किन लेहू, रघुकुल रीति बताई।
प्राण जायँ पर बचन न जाई, सदा यही चलि आई,
सपथ रघुबर रघुराई।।
सुनहुँ प्राणपति भावनि जी की, देहु भरत अवधाई।
चौदह बरस राम बनबासू, कैसी कुबात सुनाई,
गये दशरथ बिलखाई।।