मैंने बहुत सोचा किस टॉपिक पर लिखा जाए, पर मुझे कुछ सूजा ही नहीं जिस बारे में मै कुछ अच्छा सा लिख सकू। फिर मुझे अचानक से एहसास हुआ कि टॉपिक तो मेरी नज़रों के सामने था, मै बस उसे एक नज़र में देख नहीं पाई। जितने लोग भी यह पढ़ेंगे उनमें से आधे लोगो ने तो इंजीनियरिंग करी ही होगी। सोचा क्यों ना उनकी कुछ यादें ताज़ा की जाए और अपनी कॉलेज लाइफ के बचे हुए कुछ आखिरी पल जो इस लॉकडाउन में गुजर रहे हैं, उन्हें जिया जाए।
2016 में मैंने अपनी इंजीनियरिंग शुरू की थी, सोचा तो नहीं था कभी यह करूंगी पर जैसे तैसे मैं अपने कॉलेज में पहुंच ही गई। वहां जा के देखा पहले दिन का माहौल, एक बड़ा सा क्लासरूम, उसमे बैठे 60-65 बच्चे, और एक खड़ूस टीचर। सारे बच्चे डरे सहमे बैठे थे, आखिर सब 12 की मार खा के यहां पहुंचे थे। सब टीचर की बात सुन कर दिखा तो यूं रहे थे कि सब समझ आ रहा है पर समझ कितना अा रहा था ये तो आप और मैं जानते ही हैं। जैसे जैसे समय निकला, सब आपस में गुल मिल गए। और फिर आई बारी कॉलेज लाइफ का पहला एक्जाम, यानी कि मिड टर्म्स लिखने की। सारे टीचर्स ने बोला, या यूं कह लो डरा दिया कि काफ़ी मुश्किल सवाल आएंगे, अच्छे से पढ़ के आना। तो मैंने और मेरे दोस्तों ने ज़ोरो शोरों से तैयारी शुरू कर दी। हमारी गिनती पढ़ाकू बच्चों मे थी, तो हमने दो हफ़्ते पहले से ही लाइब्रेरी से किताबें ले ली और पढ़ाई शुरू कर दी। हर दिन एक दूसरे से मिल के पूछते कितनी तैयारी हो गई, यह कैसे किया, वो कैसे किया, नोट्स बनाए या नहीं!
अब आया मिड टर्म्स का शुभ दिन। पेपर हाथ में लेते ही जो पहला ख्याल मन में आया वो यह था कि यार टीचर ने तो उल्लू बना दिया, यह तो बहुत ही आसान पेपर है, खामखाह रात दिन मेहनत कर ली! पेपर समय से पहले खतम कर के मैं जब एक्जाम हॉल से निकली तो देखा सामने से मेरी दोस्त अा रही है। हम एक दूसरे से बिना कुछ कहे बस हसने लगे मानो जैसे आंखो ही आंखो में एक दूसरे कि मन की बात समझ ली हो।जैसे जैसे सेमेस्टर आगे बढ़ता गया वैसे वैसे हम हर मिड एक्जाम में चक्का मारते गए। अब था ऐंड सेमेस्टर का समय। टीचर एक बार फिर खड़खड़ाया, पढ़ लो बच्चों, यही मौका है, वरना बाद में पछताओगे। हमने जम के मेहनत की (जो जरूरत से ज्यादा थी) , रिजल्ट बहुत अच्छा रहा।
एक दिन ऐसे ही बैठे बैठे मैंने और मेरी दोस्त ने विचार किया कि हम इतनी व्यर्थ की मेहनत क्यों करे, जब हने काम मेहनत कर के भी फल मिल सकता है। तो अब हम आए हार्ड वर्क से स्मार्ट वर्क पे। स्ट्रेटजी बदली गई, टाइम टेबल बनाया गया, ग्रुप स्टडीज का फैसला लिया गया, सिलेबस को बांटा गया! इस तरीके को हमने नाम दिया "divide and conquer"। अपने अपने हिस्से में आए टॉपिक्स को अच्छे से पढ़ा गया और दूसरे को पढ़ाया गया। यह सिलसिला शुरू तो हुआ था दो लोगो के साथ, पर समय के साथ कब एक बड़ा सा ग्रुुप बन गया पता ही नहीं चला। पढाई-पढ़ाई में ज़िन्दगी भर साथ रहने और साथ देने वाले दोस्त बन गए।
मैंने आपको शुरुआत में बताया था ना पढ़ाकू बच्चे थे हम, पर कमाल की बात यह है कि इंजीनियरिंग ने हमे बदल दिया। 3 बार पूरा सिलेबस का रिवीजन करने वाले लोग अब एक्जाम के कुछ मिनट पहले सिर्फ इंपोर्टेंट पॉइंट्स देख के चलो जाते थे (कहानी बनाने में तो हम सब अभी तक माहिर हो ही गए थे)।इन चार सालों में ना जाने कितने मिड टर्म्स दिए हैं, कितने लैब एक्जाम दिए हैं और इतने सारे सेमेस्टर ऐंड एक्जाम भी। अभी बैठ के सोचती हुआ तो ऐसा एक दिन याद नहीं आता जब कोई एक्जाम या सबमिशन ना था। सारे त्यौहारों को यह एक्जाम राक्षसों की तरह निगलते गए और हम भारी मन्न से उनकी श्रद्धांजलि देते गए।
सच कहूं तो दोस्तों, इंजीनियरिंग कोई डिग्री नहीं है, यह जीवन जीने का तरीका है। इसने हमे सीखाया है कि एग्जाम्स से डरने का कोई मतलब नहीं है। जैसे हम किसी भी कोने से निकाल के आए एक्जाम का सामना कर लेते थे, वैसे ही लाइफ कि कोई भी प्रॉब्लम का सॉल्यूशन हम ढूंढ सकते हैं। इस चार साल के सफर ने हमे भूला ही दिया कि स्ट्रेस क्या होता है। अब हम यह सोच के स्ट्रेस लेते हैं कि हमें स्ट्रेस क्यों नहीं होता।
यूं ही खेलते खेलते अब हम आखिरी सेमेस्टर में अा गए हैं। यहां अा के हम यह सोच के हस्ते है की कितना पीछे रह गया वो दिन जब हमने हमारा पहला कॉलेज का एक्जाम दिया था। काफ़ी आगे अा गए हैं हम, काफ़ी पीछे रह गए हैं वो दिन, पर हमेशा याद रहेगी उन दिनों की खट्टी मीठी यादें।
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