मधुवन की सुमन

मधुवन की सुमन

भारत देश का सीमांत राज्य राजस्थान वीरभूमि के नाम से प्रख्यात है। इसका स्वर्णिम इतिहास अपने भीतर अनेक वीरांगनाओं की कहानियों को समेटे हुए है।  इनमें से एक अनसुनी कहानी राजस्थान के छोटे से गांव गोविंदपुर की है। ब्रिटिश राज में गांव के ज़मीनदार के घर जन्मी सुमन छः भाई बहनों में सबसे छोटी थी। अपने सबसे बड़े भाई से 20 वर्ष छोटी सुमन, घर की सबसे लाडली और चारों बहनों में सबसे सुंदर और गुणी थी। सुमन का बचपन खेल कूद में और पढ़ाई के बोझ से दूर, खुशहाली में बीता था। फलस्वरूप, सुमन की पढ़ाई दसवीं कक्षा तक ही हो पाई थी। अपनी सबसे बड़ी बहन को सती प्रथा की कुरीति में खोकर सुमन उनके सानिध्य से वंचित रही थी।

समय के साथ घर के कामों में परिपक्व होकर सुमन अब 18 वर्ष की हो चुकी थी और अब घर वालों द्वारा विवाह योग्य मान ली गई थी। परंतु बाकी भाई बहनों के इतर सुमन का विवाह आर्थिक रूप से कमजोर परंतु उत्तर प्रदेश के एक गांव में सरकारी कर्मचारी के रूप में कार्यरत अमरनाथ के साथ घर वालों द्वारा तय कर दिया गया था। घर की लाडली और ज़मीनदार के घर की ठाट बाट में पली बढ़ी सुमन अब एक नए घर की लक्ष्मी बन गई थी। परंतु सुमन का आने वाला जीवन संघर्ष के कांटो से भरा था। सास और पति के साथ रहने वाली सुमन ने घर में आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण सरकारी स्कूल में शिक्षिका के रूप में जीविकोपार्जन करके पति का साथ दिया। 

आर्थिक रूप से कमज़ोर स्तिथि होने के कारण और उससे संबंधित चिंताओं के चलते दंपत्ति को दो पुत्रियों और तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई। परंतु इस आर्थिक समस्या से भी बड़ी कठिनाई अभी सुमन के सामने आने वाली थी। आपातकाल के दौरान जनसंख्या नियंत्रण के लिए किए जा रहे सरकारी ऑपरेशन में गलती के कारण, सुमन के पति को कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी हो गई। इसके चलते खराब स्वास्थ्य बना रहता था। सुमन अब अकेले ही पूरे परिवार का पालन पोषण करती थी। कैंसर का बेहतर इलाज शहर में ना होने के कारण और गंभीर आर्थिक तंगी के कारण सुमन के समक्ष उसके बड़े भाई द्वारा, पति का इलाज जयपुर में ही करने का प्रस्ताव दिया गया। सुमन के सामने एक अजीब कश्मकश थी, एक तरफ़ उसका स्वाभिमान और दूसरी तरफ़ अपने पति के स्वास्थ्य का सवाल था। अंततः स्वाभिमान, पत्निधर्म के समक्ष नतमस्तक हो गया और सुमन अब निश्चित अंतराल पर अपने पति और छोटे बच्चों को लेकर जयपुर जाया करती थी। इन सभी प्रयासों के बावजूद, नियति में सुमन के लिए कुछ और ही निहित था। लंबे प्रयासों और संघर्ष के बाद भी, सुमन को अपने पति को कैंसर जैसे गंभीर रोग के कारण खोना पड़ा। पुत्र वियोग में तीन वर्षों बाद सुमन की सास ने भी इस नश्वर संसार से मुक्ति प्राप्त कर ली। 

अब अनेक संघर्षों से घिरी सुमन इस पुरुष प्रधान समाज और संसार की कठिनाइयों से अकेले ही लड़ रही थी। उसके अथक परिश्रम और ईश्वर भक्ति के कारण ही सुमन के ज्येष्ठ पुत्र संजय को अपने गुणों और क्षमता के आधार पर पिता की जगह कृषि विभाग में तैनाती प्राप्त हुई। अब घर को चलाने में उसका साथ देने के लिए उसका पुत्र भी तैयार था। सुमन ने कठिन परिश्रम करके सभी बच्चों की स्नातकोत्तर की पढ़ाई और तत्पश्चात विवाह भी कराया। समय के साथ, समाज और परिवार विकसित हुआ और सुमन भी समय के साथ माता के पद से उठकर अब दादी और नानी का पद ग्रहण कर चुकी थी। बहु को घर की लक्ष्मी मानने वाली सुमन, अपनी छोटी बहु की पढ़ाई और तत्पश्चात नौकरी करने के लिए भी घर के अन्य सदस्यों से विपरीत जाकर प्रेरणास्त्रोत बनकर उसके साथ अडिग खड़ी रही। सुमन का मानना था कि एक परिवार तभी विकसित हो सकता है, जब उसमें दंपत्ति के दोनों सदस्यों द्वारा आर्थिक एवं गृह कार्यों में समय दिया जाए। 

सुमन का व्यक्तित्व एक दूरदर्शी और अपने समय से आगे निकल कर चलने और समाज, परिवार द्वारा नारी पर लगाई गई बेड़ियों को तोड़कर खुले विचार और व्यवहार के पालन करने के सिद्धांत को दर्शाता है। सुमन ने एक माली की तरह अथक परिश्रम करके अपने परिवार को जिस प्रकार एक सुंदर मधुवन के रूप में सींचा था वो अवश्य ही नारी शक्ति और साहस का परिचय देता है। यह जीवन गाथा सुमन जैसी कई नारियों की कहानी को दर्शाता है जिनकी जीवनी लोगों से आज भी दूर है। अगर उन अनेक संघर्ष गाथाओं में से कुछ चंद भी प्रकाशित होती हैं तो वो आज के समय की नारियों की शक्ति बन सकती हैं और उनको भी अपने जीवन संघर्ष में बने रहने के लिए सहायता प्रदान कर सकती हैं।

Vanshaj Chaturvedi