
समाजिक सगाई समस्या और निदान
जटिलतम चयन प्रक्रिया
जिंदगी का समय चक्र अपनी गति से अग्रसर होता है। और जीवन की आपाधापी में बच्चे बड़े होते हुए और उनके लालन-पालन में उनकी पढ़ाई-लिखाई में समय कहां जाता है, पता ही नहीं चलता उसके बाद बच्चे स्वतंत्र स्वावलंबी हो जाते हैं। अपनी अपनी नौकरियां या व्यवसाय में व्यस्त हो जाते हैं, पैसे आते ही उनकी सोच व लालसाऐं उनके ऊपर हावी होने लगती है।
जो वे अपने आसपास देखते हैं उससे उनकी मानसिकता और नवीनतम पाने के लिए सुदृढ़ होती जाती है। यह 28 से 30 वर्ष की आयु तक आने तक परिपक्व हो चुकी होती है। वे इसको अपने माता-पिता को प्रदर्शित भी कर देते हैं।
इन्हीं मनोभावना में बहते हुए वे परिकल्पना करने लगते हैं की जमाना बदल गया है। माता-पिता को आज के विषय में अधूरा ही ज्ञान है। इसी के अगले चरण में उनके आचार-विचार सोच-समझ और भाषा ज्ञान से प्रदर्शित व पल्लवित भी होने लगता है।
अपने पारंपरिक परिवारों में पुत्रियों पर ज्यादा लाड प्यार और स्नेह प्रदर्शित किया जाता है। वे भी अपने काम व पढ़ाई के प्रति काफी सिंसियर भी होती हैं। अतः उनको अच्छे कॉलेज में दाखिला अच्छे परसेंटेज से पास होना और अच्छी नौकरी मिलना स्वभाविक हो जाता है।
जबकि दूसरी तरफ पुत्र को बाहर खेलना आपस में लड़ना राजनीतिक गतिविधियों में व्यस्त होना और बाहर के कामों का उत्तरदायित्व होने की वजह से वह गंभीरता नहीं आ पाती परिणाम स्वरूप अंक तालिका मैं उसकी परिणीति उल्लेखित होही जाती है। फिर अपनी पसंद का कॉलेज और ब्रांच ना मिलने की वजह से नौकरी से भी समझौता करना पड़ता है। और इसका असर कहीं ना कहीं सैलरी पैकेज में भी दिखता है।
अब शुरुआत होती है मूल समस्या की, जब सगाई संबंध के लिए लड़के और लड़की के चयन के लिए मशक्कत शुरू होती है। तब मूलतः कुछ सवालों का जन्म होता है।
- लड़का/लड़की क्या करते हैं?
- उनका पैकेज क्या है?
- किस शहर में नौकरी है?
- कहां तक पढ़ाई करी है?
- क्या इसी शहर में नौकरी करनी है?
- परिवार में क्या-क्या जिम्मेदारी है?
- मैं यह तो शहर नहीं छोडूंगा/गी?
- मुझको किचन में जाने का शौक नहीं है। नाही घर का काम आता है।
इन्हीं प्रश्नावली में उलझ कर और कहीं ना कहीं समझौता कर आगे चयन की प्रक्रिया की शुरुआत होती है। एक दूसरे को तौला और परखा जाता है।
पुरानी बातें अब खत्म हुई जिसमें पहले परिवार बच्चों की योग्यता सामूहिक परिवार में रहने की उपयोगिता को प्राथमिकता दी जाती थी। जन्मपत्री का मिलान और ग्रहदशा-गुण तो बीती बात हो गई।
अब अधिकांशतः संबंध बच्चों के द्वारा ही तय कर लिए जाते हैं। अपने परिवार से छिपकर, वे अपनी पसंद को अपनाना अपना मौलिक अधिकार एवं उनकी अवहेलना को स्वत्रंन्ता में हस्तक्षेप मानते हैं।
- अपने सहपाठी
- मोहल्ले के किसी जानकार
- ऑफिस में काम करने वाले सहकर्मी के साथ कौम्पैटिबिलिटी या आकर्षण का रूप देकर संबंध खुद व खुद हो जाते हैं। जिसका पता परिवार में बाद में ही लगता है। माता-पिता किंकर्तव्यविमूढ़ होकर जानते पूछते हुए भी कुछ नहीं कर पाते हैं। और असहाय हो बच्चों की खुशी के लिए उनकी बात मान लेते हैं। इस तरह बच्चों द्वारा साइकोलॉजिकल ब्लैकमेलिंग करी जाती है।
चतुर्वेदी परिवार मूलतः परंपरागत और रूढ़िवादी होते हैं अपने रीति रिवाज से इस तरह से आई हुई कन्याएं इन परिवारों में घुल मिल नहीं पाती, और ना ही रीति रिवाज को अपना पाती है। ना ही सामाजिक या पारिवारिक विवाहों आदि में मिलजुल कर आनंद ही उठा पाती हैं। सतिया, चौक, एपन, अमला, मांये, छिरका-छींटी, अछूता निकालना, धोई-भात झोर खीर तो एक दूर की बात हो गई इसीलिए प्रायः यह पारम्परिक प्रथाऐं अब लुप्त भी होती जा रही हैं।
घर की बड़े गुणीजन अगर थोड़ा सतर्क विवेकशील एवं परखी हो तो कक्षा 10 के बाद से ही बच्चों की हरकतें व्यवहार को ध्यान से देखें । मनोवैज्ञानिक तरीके से इसका विश्लेषण करें अच्छे बुरे की समझ उत्पन्न करें साथ ही दूरगामी परिणामों से भी बच्चों को अवगत कराये।
देखें की :
- बच्चे शीशे को ज्यादा निहार रहे हैं।
- मोबाइल को नहीं छोड़ रहे हैं और सदा अपने पास रखते हैं।
- बात करते-करते एकदम उठ कर चले जाते हैं। दूर जाकर घंटों बात करते हैं।
- चेहरे पर कभी तनाव दिखता है।
- खर्च के पैसे काफी लेने लगते हैं।
- मोटरसाइकिल कपड़ों और मेकअप पर अधिक खर्च करने लगते हैं।
- व्यवहार में चिड़चिड़ापन और टोका टाकी पसंद नहीं करते हैं।
यह बड़ा ही हास्यास्पद होगा की समस्या का निराकरण व समाधान मेरी अपनी राय में ना बताया जाऐ।
बचपन से ही बच्चों की परवरिश और संस्कार सुदृढ़ करने के लिए खुद मां-बाप को आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। साथ ही हर त्योहार व पूजा पाठ खाना और परंपरा बच्चों के हाथ से ही करवाएं।
अच्छे बुरे का भेद और परिणाम सहित उनको बताएं और अगर संभव हो तो उदाहरण दिखाकर उनके विचारों को सुदृढ़ करें।
बच्चों पर अति का लाड प्यार भी कई बार भारी पड़ जाता है और वह इसको अपना अधिकार मान लेते हैं। अतः कभी-कभी उनको ना करना भी सीखें जिद्दी न बनने दे।
परिवार के साथ खाने की परंपरा डालें बाहर के खाने को मंगवाने की परंपरा को कम करें। सात्विक परंपरागत पौष्टिक खाने की महत्ता बताऐ। सभी पौष्टिक स्वच्छ तरह के खाने खिलाना भी सिखाए, मुझको यह अच्छा लगता है या यह नहीं लगता की भावना उत्पन्न न होने दे।
पूजा पाठ आरती उनके हाथों से करवाएं। पुरानी शिक्षाप्रद कहानियां से अवगत करवाऐं।
अच्छे स्कूल व कॉलेज में एडमिशन करवाऐं खूब पढ़ाई करवाऐं लेकिन ऊंच नीच से अवगत जरूर करवाऐं।
बच्चों से मित्रवत व्यवहार करें खूब बाते करें जिससे कि वह अपने मन की बात आप से करने में कोई दिक्कत झिझक न महसूस करें । अगर बच्चे बाहर भी चले जाते हैं तो उनकी शुभेच्छा नियमित लेते रहे।
विवाह संबंध सजातीय ढूंढे और जल्द से जल्द सोच समझकर जानकारी लेकर एक दूसरे को समझने का समय देने के उपरांत ही सगाई आदि तय करें।
समाज की परंपरागत रीति रिवाज को कारण सहित अवगत करवाये और उन को भी अपने हाथ से करने का मौका देवें।
डॉ कपिल चतुर्वेदी आगरा
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