पुण्य तिथि पर पिता डॉ महेश चंद्र चतुर्वेदी का स्मरण
मेरे पिता
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर, रांची जब फांस गड़ती है तो दर्द का एहसास होता है। मेरे पिता महेश चन्द्र चतुर्वेदी का निधन 28 जनवरी, 1995 को हुआ। लेकिन अपने पिता का आकलन या लेखा-जोखा बयान करना बेहद कठिन काम है, डर रहता है कि भावावेश में कहीं उन पर लिखी टिप्पणी महज एक प्रशंसात्मक लेख बनकर न रह जाये। मेरे पिता महेश चन्द्र चतुर्वेदी फीरोजाबाद में ही पले-बढ़े और वहीं उन्होंने अंतिम सांस लीं। मैं उनके जीवन में तीन मुख्य पड़ाव मानता हूं। एक जो फीरोजाबाद में जहां उन्होंने शिक्षा ग्रहण की और कुछ समय के लिए विभिन्न कॉलेजों में पढ़ाया। उस दौरान उन्हें समाजवादी विचारधारा ने प्रभावित किया जिसका गहरा असर उनकी जिंदगी पर पड़ा। वे समाजवादी पार्टी की ओर से भूख-हड़ताल पर भी बैठे। हालांकि उन्होंने जबलपुर विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में डी लिट् हासिल की लेकिन १९४४ में हाईस्कूल में प्रथम श्रेणी और यूपी में पोजिशन लाने पर जितना सम्मान मिला, उन्हें शायद कभी नहीं मिला होगा। प्रिंसीपल बनर्जी साहब ने कॉलेज के हॉल में सभी विद्यार्थियों को इकट्ïठा कर उनका सम्मान किया और फीरोजाबाद का नाम ऊंचा करने के लिए कॉलेज का एक दिन अवकाश घोषित कर दिया था।
स्वतंत्रता आंदोलन का दौर था। दादाजी पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी इससे सीधे तौर से जुड़े थे। पिताजी पर इसका असर था। 1942 का वाकया है जब गांधीजी ने अंग्रेजों भारत छोड़ों का नारा दिया। उस समय कॉलेजों में अंग्रेज राजा और महारानी की तस्वीरें लगा करती थीं। यह तय हुआ कि कम से कम इन तस्वीरों को तो कॉलेजों से हटाकर कहीं फेंक दिया जाए। पिताजी इस दल के अग्रणी सदस्य थे। इस काम को अंजाम देने के बाद अंग्रेज प्रशासन की नाराजगी का अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन यह काम इतना गुपचुप हुआ कि अंत तक इसकी भनक लोगों को नहीं लग पायी। इस तथ्य की लोगों को पता नहीं कितनी जानकारी है कि महेश चन्द्र जी ने एक बार प्रशासनिक सेवा की परीक्षा भी दी जिसमें वे सफल रहे। लेकिन समाजवादी पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता होने के कारण पुलिस रिपोर्ट प्रतिकूल रही और उनका चयन न हो सका।
पिता महेश चन्द्र के जीवन का दूसरा पड़ाव मध्य प्रदेश रहा। वे 1960 में मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले की एक तहसील सीहोरा के डिग्री कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक होकर पहुंच गए। और फिर वहां से पहुंचे जबलपुर में डी.एन. जैन महाविद्यालय। यहां उन्होंने शिक्षक आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। इस दौर में वे गरमपंथी तेवरों के लिए जाने जाते थे। हड़तालें, आंदोलन और गर्म भाषण उनकी पहचान थी। वे अध्यापक तो अर्थशास्त्र के थे लेकिन उनकी गहरी पैठ दर्शन पर थी। इस दौरान उनकी लंबी बहस आचार्य रजनीश से भी होती थी। रजनीश उस समय तक आचार्य ही थे और जबलपुर के एक ही कॉलेज में दर्शन के अध्यापक थे।
पिताजी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए आयातित विचारों, सिद्घांतों और उस पर खड़ी संरचनाओं के हिमायती नहीं थे। उन्होंने कौटल्य के अर्थशास्त्र और महाभारत के शांतिपर्व का गहरा अध्ययन किया था और उनकी उस साहित्य के प्रति गहरी आस्था थी। सभी किस्सों और घटनाओं से उनकी एक ही तस्वीर झलकती थी -मौलिक चिंतन, शिक्षा के प्रति समर्पण, समझौते से चिढ़ और आत्मसम्मान जिस पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।
मैं अपने पिताजी के जीवन का तीसरा पड़ाव मथुरा मानता हूं। यहां उनकी आध्यात्म के प्रति गहरी आस्था उभरकर सामने आयी। वैसे तो अंग्रेजी, हिंदी और संस्कृत भाषाओं पर उनकी मजबूत पकड़ थी। मथुरा के किशोरी रमण महाविद्यालय में वे अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष थे लेकिन उनका मन दर्शनशास्त्र में बसता था। उनका झुकाव भी श्री अरविंद और मां के प्रति था। इसमें और मजबूती आई और वे इस ओर और झुके। प्रसिद्घ वामपंथी विचारक सव्यसाची से उनकी अक्सर बहस होती जिसमें वे कहते थे कि 'इट इज टू लेट टू लीव क्राइस्ट एंड बुद्घा' यानी ईसा मसीह और बुद्घ को अब मैं नहीं छोड़ सकता, क्योंकि अब बहुत देर हो चुकी है। उनका रुटीन तय था - घर, कॉलेज और शाम को रंगेश्वर मंदिर। इस दौरान उन्होंने समाज, जीवन के यथार्थ वाले और दार्शनिक कविताएं लिखी। उसी दौरान उन्होंने गीता पर टीका लिखी। उस बारे में उनका कहना था कि हजारों लोगों ने गीता पर टीकाएं लिखीं क्योंकि हरि अनंत है और उनकी कथा भी अनंत है इसलिए वह भी प्रभु आराधना में अपना स्वर शामिल करना चाहते हैं। उन्होंने लिखा- अभी करो विश्राम तनिक गीता के नायक, मुझको दो अवकाश महाभारत के नायक।
दर्शन की बातें उन्होंने अपने अन्य कविताओं में की -
छोड़ो पतवार को किनारे पर,
क्या जरुरत है तुझे लंगर की।
तुझे तलाश है हवाओं की,
चलना है गोद में समंदर की।
अवकाश ग्रहण करने के बाद फीरोजाबाद वापस चले आये। इसमें उनके छोटे भाई और स्वर्गीय मिथलेश चन्द्र जी के स्नेह की बड़ी भूमिका रही। उन्होंने जीवन की आखिरी सांस भी यहीं ली। उनका मानना था कि हर शहर का एक मिजाज होता है और चूंकि फीरोजाबाद एक कारोबारी शहर के रूप में उभरा इसलिए यहां के समाज और रिश्तों में उनका असर आ गया।
उनकी मृत्यु का जिक्र आता है तो एक निहायत ही गंभीर सवाल पिता की प्रासांगिकता का भी उठ खड़ा होता है। पिता एक प्रकार से जड़ हैं जिनके सूख जाने पर उसका बेटा उस जड़ की जगह लेता है और यह प्रक्रिया सतत् चलती रहती है। भले ही स्त्रीवादी पक्षधर कुछ भी कहें, इस पुरुष प्रधान समाज में पिता ही संतान की पहचान है। कार्य के सिलसिले में मेरा पश्चिमी देशों में रहने का अनुभव रहा है और उस आधार पर मैं कह सकता हूं कि पश्चिम के देशों में भी संतान की पहचान में पिता के महत्व को रेखांकित किया गया है। भारत के संदर्भ में पिता और पुत्र का संबंध सुवयाख्यायित है। जब विदुर की मृत्यु का समय नजदीक आया तो उन्होंने युधिष्ठिर से कहा कि वे उनके ऊपर लेट जाएं ताकि वे अपने सभी गुण उन्हें प्रदान कर सकें। दुनिया का कोई भी समाज पिता के महत्व को नकार नहीं पाया है और मैं भी पुत्र होने के नाते पिता का ऋणी हूं।
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