श्री माथुर चतुर्वेदी और फिरोजाबाद का इतिहास
अधिकांश लोगों को पता नहीं होगा कि फिरोजाबाद शहर का इतिहास श्री माथुर चतुर्वेदियों से जुड़ा हुआ है और बादशाह अकबर और टोडरमल से भी।
वैसे तो फिरोजाबाद शहर का इतिहास मुगल बादशाह अकबर के नव-रत्नों में से एक राजा टोडरमल के वाराणसी से लौटते हुए इस इलाके के सायत के ठेकेदार (बाद की भाषा में जमींदार या ज़ोर ज़मीन्दार या ठाकुर) चौबे दुर्गा प्रसाद से हुए विवाद से जाना जाता है जिसको बहुत से इतिहासकारों ने टोडरमल के काफिले की लूट कहा है परंतु असलियत में यह विवाद महसूल वसूलने को लेकर हुआ जिसका किस्सा इस प्रकार है:-
फ़िरोज़ाबाद में हम लोगों के परिवार का इतिहास बहुत पुराना है और हमारे परिवार यानी कि सौश्रवस गोत्र (ऋषि विश्वामित्र से सम्बंधित गोत्र)के पुरोहित(अल्ल) वंश के फ़िरोज़ाबाद के चौबे अथवा चतुर्वेदी परिवार के ज्ञात मूल पुरुष हेमराज जी थे जिनका समय मुगल बादशाह हुमायूँ/अकबर का समकालीन काल बताया जाता है और उनके समय से हमारे इस परिवार का सिजरा (वंश वृक्ष;Family Tree) और इतिहास (कुछ पुश्त दर पुश्त सुनते हुए और काफी कुछ लिखित रूप में) हम परिवारीजनों पर उपलब्ध है।
दुर्गाप्रसाद जी हमारे परिवार के मूल ज्ञात पुरुष हेमराज जी के पौत्र छोटेलाल जी के पुत्र थे.इस हेमराज जी-दुर्गाप्रसाद जी के परिवार की फिरोजाबाद में कई शाखाएं रह रही हैं।फ़िरोज़ाबाद के चतुर्वेदी समाज में आज दुर्गाप्रसाद जी और उनकी पुत्री लछा के वंशजों को ‘चौबे हाउस’ वालों से जाना जाता है.लछा जी के परिवार के ही डॉक्टर संपत राम जी,डॉक्टर बनवारी लाल, प्रसिद्ध पी0सी0 चतुर्वेदी, एडवोकेट इलाहाबाद, जी0सी0 चतुर्वेदी (I.A.S.),कैलाश मजिस्ट्रेट साहब,प्रोफेसर अरुण प्रकाश,अर्जुन सिंह चतुर्वेदी,नीलमणि भाईसाहब, प्रोफेसर सुनील चतुर्वेदी आदि लोग हुए और इस परिवार से ही वर्तमान में इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज हैं जस्टिस राहुल चतुर्वेदी।
बहरहाल ये किस्सा तब का है जब हम सभी का मूल परिवार एक ही था.
यह किस्सा मुग़ल बादशाह अकबर के समय का है (घर के कागजों में एक जगह बादशाह शाहजाहाँ के नाम से भी जिक्र है किंतु ऐतिहासिक घटनाओं को जोड़ने पर किस्सा अकबर के समय से ही जुड़ता है)।आगरा के आसपास और दोआबा क्षेत्र के इलाकों के ज़मीन्दार ‘ज़ोर ज़मीन्दार’ अथवा ‘ज़ोर तलब ज़मीन्दार’ भी कहलाते थे और उनमें काफी ज़मीन्दार ब्राहम्मण वर्ण के भी थे ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है.तो ऐसे ही एक ज़मीन्दार हमारे परिवार के बुजुर्ग भी थे.हम लोगों के पास कई सौ गांवों की जमीन्दारी थी और 18वीं सदी के अंत से 19वीं सदी के दौरान नील की खेती के दौर में एक समय ऐसा भी आया जब अंग्रेज़ हुकूमत से लगान चुकाने पर विवाद होने पर हमारे बुजुर्गों की जमीन्दारी के 80 से अधिक गांवों की नीलामी अंग्रेजों द्वारा कर दी गयी थी लेकिन वो किस्सा फिर कभी.इस इलाके के ज़मीन्दार अपने नाम के अनुसार अधिकतर उद्दंड,स्वाभिमानी और दबंग हुआ करते थे और इस इलाके के अधिकतर ज़मीन्दार अपनी दबंगई के कारण आम बोलचाल की भाषा में न सिर्फ ठाकुर कह कर संबोधित किये जाते थे अपितु अनेकों ब्राहम्मण लोगों के नाम में ‘सिंह’ का भी प्रयोग होता रहा है.इस इलाके में ‘ज़ोर तलब ज़मीन्दार’ ठाकुर कहलाने के कारण कतिपय इतिहासकारों ने (विशेष तौर पर अंग्रेज़ लेखकों ने)इस इलाके की जमीन्दारी मुख्यतः ठाकुर यानी क्षत्रियों के पास थी ऐसा लिखा है लेकिन सत्य यह है कि इस इलाके में ब्राहम्मण परिवारों पर भी काफी जमीन्दारी रही हैं और आम बोलचाल की भाषा में जमींदार ब्राह्मण लोगों को भी ठाकुर कह कर सम्बोधित करने की प्रथा रही है।
किस्सा कुछ इस प्रकार है कि मुगल बादशाह अकबर के समय में एक कारवां शाही माल और असबाब लेकर आ रहा था.ये लोग जो सामान ले जा रहे थे उसमें बादशाह की हिंदू बेगम के लिए दक्षिण का बढ़िया कपड़ा और बनारस की बेशकीमती साड़ियां,लहंगे आदि भी थे.फ़िरोज़ाबाद के निकट आने पर जिस इलाके में हमारे पूर्वजों की जमीन्दारी थी और खुद बादशाह द्वारा प्रदत्त ‘सायत’ का ठेका था वहाँ की चुंगी चौकी पर उनको रोका गया और सामान पर उस समय के नियमानुसार ‘महसूल’ या कर ‘(चुंगी) मांगा गया.उस कारवां के सरदार (फिरोजाबाद गजेटियर के अनुसार तथ्यों का मिलान मानें तो ये राजा टोडरमल हुए) आदि अपने सत्ता के मद में चूर थे और उन्होंने ये कर देने से इनकार कर दिया. फिरोजाबाद के गजेटियर की घटना से मिलान करें तो इस कारवां का नेतृत्व राजा टोडरमल कर रहे थे.महसूल से इनकार करने पर बात अधिक बढ़ जाने पर हमारे बुजुर्ग दुर्गाप्रसाद जी पर खबर गयी.दुर्गाप्रसाद जी अपनी गढ़ी (वर्तमान में फ़िरोज़ाबाद के मोहल्ला चौबान में स्थित चौबे हाउस और उसके आसपास का पूरा परिसर जिसमें अरविंद भाईसाहब वाला घर,हम लोगों का पुराना घर,शैलेन्द्र भाईसाहब और सत्येंद्र भाईसाहब का घर और बाहर पूरा सड़क तक का हिस्सा शामिल था )से घोड़े पर चढ़ कर चुंगी चौकी पर पहुँचे.पुश्त दर पुश्त की श्रुति के अनुसार यह चुंगी स्थल वर्तमान मौढा-कनेटा से आसफाबाद के बीच का कोई स्थल रहा होगा.
दुर्गाप्रसाद जी के वहाँ पहुँचने पर मुगल कारवां के सरदार ने उनसे कहा कि ये माल बादशाह की बेगम के लिए जा रहा है और शाही माल पर महसूल नहीं लग सकता इसलिए हम महसूल नहीं देंगे.इस पर दुर्गाप्रसाद जी ने कहा कि हम महसूल भी तो बादशाह के कहने से और बादशाह के लिए ही वसूल रहे हैं और तुम्हारे पास इसको न लिया जाए ऐसा कोई फरमान भी नहीं है अतः महसूल तो देना पड़ेगा.वो लोग महसूल देने को कतई तैयार नहीं थे और बात बढ़ती ही जा रही थी तो अंत में तैश में आकर दुर्गाप्रसाद जी ने कहा,”लैय्यो अकबरी गज गर्म करकें और इन गाँठन में ऊपर सैं नीचें तक दाग देओ” और उनके कारिंदों ने जब तक मुगल सरदार कुछ समझ पाएं तब तक कपड़ों की सारी गाँठों को ऊपर से नीचे तक गर्म अकबरी गज से दाग दिया जिस से सारे के सारे कपड़ों के थानों में आरपार छेद हो गए और सारा सामान बेकार हो गया.इस काम को अंजाम देकर फिर दुर्गाप्रसाद जी ने उनसे कहा कि हमारा महसूल वसूल हो गया अब आप लोग जा सकते हैं.यह घटनाक्रम इतनी तेजी से अचानक घटा कि सारे लोग हक्के बक्के रह गए.अब लेकिन हो भी क्या सकता था.कहते हैं इस कहासुनी पर वहाँ बात बढ़ी और झगड़ा-झंझट मार पीट भी हुई पर किसी तरह से बच कर मुगल काफिला गुस्से से आग बबूला होते हुए अपने गंतव्य को आगे बढ़ गया और दुर्गाप्रसाद अपनी गढ़ी को लौट गए.
अब राजधानी पहुँच कर बादशाह के कारिंदों ने ये सारा किस्सा खूब नमक मिर्च लगाकर बादशाह को सुनाया और फिर क्या था बादशाह के क्रोध का यह सब सुन कर ठिकाना ही नहीं रहा.बादशाह ने अपने एक सरदार कुल्हाड़ शाह को आदेश दिया कि दुर्गाप्रसाद को तुरंत गिरफ्तार कर के लाओ.कुल्हाड़ शाह 500 लोगों की फौज को लेकर फ़िरोज़ाबाद आया और दुर्गाप्रसाद जी को गिरफ़्तार कर लिया गया.इसके बाद कुल्हाड़ शाह ने अपने आदमियों को हुक्म दिया कि इनकी गढ़ी/हवेली (मुहल्ला चौबान स्थित परिसर;वर्तमान में) को खोद कर इस पर हल चला दो और यह प्रक्रिया शुरू भी हो गयी.चारों ओर बहुत कोहराम मच गया.उस समय फ़िरोज़ाबाद में एक और अत्यंत प्रभावशाली चौबे परिवार था चौबे हुलासराय का(चौबे जी का बाग वाले चौबे सुदर्शन लाल जी के पूर्वज).इन चौबे हुलासराय के कुल्हाड़ शाह से कुछ पुराने सम्बन्ध और मित्रता थी जिसका लाभ उठाकर उन्होंने दुर्गाप्रसाद जी की गढ़ी को खुदने और हल चलने और अन्य परिवारीजन को गिरफ्तारी-बेइज्जती आदि से बचाया.
कुल्हाड़ शाह दुर्गाप्रसाद जी को लेकर बादशाह की खिदमत में पहुँचा और उस समय के दस्तूर के हिसाब से उनको उनकी अच्छी हैसियत होने के कारण किले के ही एक कैदखाने में डाल दिया गया.उस समय जो कैदी जेल में डाल दिए जाते थे तो उनके विषय में ये ज़रूरी नहीं था कि उनके उसी जीवन में ही उनकी सुनवाई हो जाये और फिर दुर्गाप्रसाद चौबे ने तो जो गुनाह किया था वो शाही परिवार के प्रति किया था.खैर चौबे जी कैदखाने में समय काटने लगे और वहाँ के अन्य कैदियों से उनकी जान पहचान भी होने लगी.उनके वाले कैद खाने में कुछ मुसलमान कैदी भी थे जो पहलवान थे और किसी ने द्वेषवश फंसवा कर उनको भी जेल भिजवा दिया था.चौबों को भी पहलवानी का शौक रहा है अतएव इन मुस्लिम पहलवानों से दुर्गा प्रसाद की खूब दोस्ती और नजदीकी हो गयी.नजरबंदी के दौरान दुर्गाप्रसाद जी अपना भोजन स्वयं बनाते थे.उनके चतुर्वेदी ब्राहम्मण होने के नाते उनको यह सुविधा मिली हुई थी क्योंकि उस वक़्त के हिसाब से अन्य किसी का पकाया भोजन वो खा नहीं सकते थे.एक दिन की बात है काफी बारिश हो रही थी और लकड़ी गीली होने के कारण खाना बनाने के लिए चूल्हा नहीं जल पा रहा था.ऐसी स्थिति में परेशान होकर दुर्गाप्रसाद जी ने अपने साफे को चूल्हे में जला दिया जिस से लकड़ी ठीक से जल जाए.उनका साफा जमीन्दारी ठाठ-बाट वाला सोने के कलाबत्तू के काम से जड़ा हुआ साफा था.खाना तो बन गया अब अगली सुबह जब चूल्हा साफ किया गया तो उसकी राख में काफी सोना निकला जो कि साफे के जल जाने के बाद गल के छोटे ढेलों के रूप में हो गया था.दुर्गाप्रसाद जी की किस्मत देखिए कि चूल्हा-बर्तन साफ करने वाली से होते हुए यह बात बादशाह की हिन्दू महारानी तक पहुँची कि इस प्रकार से एक निर्दोष ब्राहम्मण जेल में बंद हैं जिनको आपके सामान पर महसूल मांगने के कारण यह सब झेलना पड़ा है.यह सब जानकर महारानी को बहुत दुःख और अफसोस हुआ कि एक सम्पन्न और सक्षम परिवार के चौबे ब्राहम्मण को बिना उनकी गलती के महारानी के सामान पर महसूल मांगने के कारण इतना कष्ट भुगतना पड़ा है.
अब मैं इस किस्से को यहीं अधूरा छोड़ कर आपको 20वीं सदी यानी पिछली सदी के किसी वर्ष में मथुरा ले चलता हूँ.मथुरा में रुस्तमे हिन्द-रुस्तमे ज़मां विश्व के महान पहलवान गामा आये हुए थे और चुनौती थी कि उनसे कोई लड़े.हरीश मामा के बताए अनुसार ये वही गामा पहलवान थे जिनको स्व0 पंडित मोतीलाल नेहरू अपने खर्चे पर विदेश ले गए थे उस समय के विश्व चैंपियन जीवास्को से लड़ने को और गामा पहलवान देश का सर ऊंचा करा कर लौटे थे.अब मथुरा में गामा पहलवान से कोई लड़ने को तैयार नहीं था इस पर मथुरा के लोगों ने वहाँ के एक पहलवान बलदेव चौबे जी से कहा कि वही गामा से लड़ें ताकि इज़्ज़त तो रहे। यद्यपि बलदेव चौबे और गामा पहलवान का कोई मुकाबला ही नहीं था.खैर जब बलदेव चौबे की चुनौती गामा पहलवान को मालूम पड़ी तो उन्होंने चौबे जी से लड़ने से साफ इंकार कर दिया.लोगों के पूछने पर उन्होंने बताया कि चौबों के हमारे बुजुर्गों पर बहुत अहसान हैं और हमारे बुजुर्गों ने अपने वारिसान को सख्त ताकीद की थी कि चौबों की हमेशा इज़्ज़त करना और उनसे लड़ने का तो सवाल ही नहीं है.इस घटना को ध्यान में रखते हुए आइए अब हम वापिस चलते हैं 17वीं सदी में मुगल सम्राट के कैदखाने में जहाँ यह कहानी छोड़ी थी.
जब मुगल सम्राट से उनकी महारानी ने कैदखाने का वाकया बताया और गुजारिश की कि चौबे दुर्गाप्रसाद को बुलाया जाए तो दरबार में उनकी पेशी हुई.बादशाह ने उनसे पूरा किस्सा सुना और जब उन्होंने कहा कि वो तो जो काम उनके जिम्मे था उसी का निर्वहन कर रहे थे तो महारानी की सिफारिश और खुद भी संतुष्ट होकर दुर्गाप्रसाद जी की न सिर्फ रिहाई का आदेश कर दिया अपितु उनके सारे अधिकार भी उनको वापिस दे दिए गए.यह सब सुनकर भी दुर्गाप्रसाद बादशाह और महारानी के आगे खड़े रहे.बादशाह के पूछने पर उन्होंने कहा कि आपकी जेल में कुछ निर्दोष पहलवान भी कैद हैं जिनको द्वेषवश किसी ने फंसा कर कैद में डलवा दिया है तो आपसे गुजारिश है कि या तो उनको भी रिहा करवा दें अन्यथा मैं भी नहीं जाऊँगा.उस जमाने में बादशाह के आगे इतना बोलना बहुत ही असंभव सी और बड़ी बात थी,दुर्गाप्रसाद जी के द्वारा पहलवानों के विषय में सच्चाई बताने से और उनकी सादगी तथा दोस्ती की बात से प्रभावित होकर बादशाह ने उन पहलवानों को भी रिहा करने के आदेश दे दिए.बुजुर्गों से सुने के अनुसार ये मुस्लिम पहलवान और कोई नहीं बल्कि गामा पहलवान के पूर्वज ही थे.शायद यही वजह थी कि गामा पहलवान जब मथुरा गए तो उन्होंने बलदेव चौबे का बहुत सम्मान करते हुए उनसे लड़ने से इनकार कर दिया था.इस सारी घटना का कालक्रम अकबर के राज्य के शुरुआती दौर का बताया जाता है।इसके बाद राजा टोडरमल के कहने पर अकबर ने फिरोज़ शाह नाम के सरदार को उस इलाके, जिसका नाम फिरोजाबाद हुआ, की व्यवस्था देखने को नियुक्त किया।
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