अनिल भाई साहब का जाना अखर गया
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।
गीता के इस श्लोक का भावार्थ है कि हर जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है इसलिए जो अपरिहार्य है उसके विषय में शोक नहीं करना चाहिए. सनातन परंपरा में भी अक्सर कहा जाता है कि विधि का विधान है कि जो इस संसार में आया है, उसका जाना तय है. एक उम्र के बाद चलते फिरते चले जाना एक तरह से ईश्वर का अनुग्रह है. लेकिन न केवल दिल्ली बल्कि देश के जाने माने चिकित्सक डॉक्टर अनिल चतुर्वेदी उनका जाना अखर गया. मैं उन्हें अनिल भाई साहब के नाम से संबोधित करता था. इस चार जनवरी को वो अस्सी साल के होते. रांची आने के बाद भाई साहब से यदाकदा ही मुलाकात होती थी. लेकिन उनसे लगातार फोन पर बात होती रहती थी. उनका नियमित फोन मेरे पास आता था जिसमें वह न केवल मेरा बल्कि पूरे परिवार का हालचाल लेते थे. इसके बाद उनसे थोड़ी देर राजनीतिक और साहित्यिक चर्चा होती थी.
जब मैं दिल्ली इंडिया टुडे में नौकरी करने आया, तब उनसे परिचय प्रगाढ़ हुआ. मेरी यह शुरुआती नौकरियों में से एक थी. जैसा कि हम सब जानते हैं कि दिल्ली महासागर है. मैं मथुरा जैसे छोटे स्थान से आया था, दिल्ली में रचने बसने की कला मुझे नहीं आती थी. मुझे याद है कि भाई साहब ने सबसे पहले सहारा दिया और दिल्ली को जानने समझने की तमीज सिखायी. भाई साहब दिल्ली में रचे बसे थे. डॉक्टर, राजनेता, ब्यूरोक्रेट, साहित्यकार और पत्रकार ऐसा कौन सा वर्ग है जिसके शीर्ष लोगों से भाई साहब का परिचय न हो. उस समय भाई साहब का फ्लैट तैयार हो रहा था और थोड़ा लंबा खिचता चला जा रहा था और वे पटपटगंज के ध्रुव एपार्टमेंट रहते थे. बाद में वह एकता गार्डन में अपने फ्लैट में रहने आ गये. मैं पास में ही मयूर विहार में रहने आ गया था और मेरा बड़ा भाई स्वर्गीय अमिताभ पटपड़गंज में ही भाई साहब के बिल्कुल बगल के धर्मा एपार्टमेंट रहने लगा था. बस उसके बाद तो भाई साहब से मिलने का सिलसिला चल पड़ा. मैं अक्सर उनके घर जाता जहां उनके अलावा उनके पिता स्व, बैकुंठ नाथ जी, जिन्हें हम सब बड़े चाचा कहते हैं, उनसे भी मुलाकात होती थी. वह बड़े शिक्षाविद और जिंदगी के अनुभवों से तपे हुए व्यक्ति थे. हमारा संपर्क सूत्र हमारी ताई स्वर्गीय कनक चतुर्वेदी थीं जिनके अनिल भाई साहब छोटे और प्रिय भाई रहे हैं.
भाई साहब टाइम्स ऑफ इंडिया में कंस्लटेंट डॉक्टर थे और टाइम्स के दरियागंज स्थित उनका नियमित आना जाना था. साहू रमेश जैन से भी उनका गहरा नाता था और मुझे याद है कि उन्होंने एक बार मेरी मुलाकात भी उनसे करायी थी. उन्होंने ही मेरा परिचय वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री आलोक मेहता से कराया था जो आज भी प्रगाढ़ है. वह जैसे एक बरगद के पेड़ थे जिसके साये में जाने कितने लोगों को अपनी जिंदगी के सफर को आगे बढ़ाने में मदद मिली. मेरे छोटे बेटे अनंत के जन्म से पहले मैं भ्रम में था कि डिलीवरी कहां करायी जाए. मुझे याद है कि भाई साहब ने शांति मुकंद अस्पताल का रास्ता दिखाया और जहां उसका सकुशल जन्म हुआ. इस दौरान किसी भी डॉक्टरी सहायता के लिए भाई साहब लगातार सुलभ रखते थे. सुजाता भाभी का मार्गदर्शन और सहयोग अलग रहता था. अनिल भाई साहब के व्यवहार में मैंने एक और चमत्कार देखा है. वे जिस अस्पताल से जुड़े, उसका प्रमोटर उनके आगे पीछे मंडराता दिखता था. लेकिन उन्होंने कभी अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं किया. मेरा मानना है कि मैं ही अकेला नहीं हूं. जिसने भी उनकी ओर मदद का हाथ बढ़ाया, उसकी उन्होंने भरपूर मदद की है. लेकिन उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि मजाल है कि किसी को यह पता लग जाए कि उन्होंने क्या मदद की.
अनिल भाई साहब के कई रूप हैं. उनका एक रूप मददगार का है तो एक रूप पुराने संस्कारों और परंपराओं को बरकरार रखते हुए प्रगतिशील व्यक्ति का भी है. उन्हें पढ़ने लिखने का खासा शौक था और उनकी भाषा शैली किसी बड़े पत्रकार और साहित्यकार से कमतर नहीं थी. शेरो शायरी का उन्हें विशेष शौक था और भाषण वे लाजवाब देते थे. वह लोगों को जोड़ना जानते थे. इन्हीं संस्कारों के कारण वे इस दौर में भी परिवार को एक सूत्र में बांधे हुए थे. जो भाई साहब की शरण में गया, उसका उन्होंने उद्धार किया. उन्हें यदि पता चल जाए कि कोई रिश्तेदार बीमार है, तो वे रिश्तेदार को बुलाकर अपने घर पर रखकर उसका इलाज करवाकर और दुरुस्त करके भेजते थे. उनकी पत्नी सुजाता भाभी का भी योगदान कम नहीं आंका जा सकता है. उनकी मदद के बिना भाई साहब शायद इतनी मदद नहीं कर पाते. इतने बड़े परिवार को उन्होंने जिस खूबसूरती से एक सूत्र में बांधे रखा, वह सराहनीय है. बड़ा परिवार है जिसकी वजह से उनके घर रिश्तेदारों का आना जाना अक्सर लगा रहता था. लेकिन सुजाता भाभी के प्रेम में कभी किसी ने रत्ती भर भी फर्क महसूस नहीं किया होगा. वह सबका सत्कार करती और मजाल है कि इस दौरान उनके चेहरे पर कभी कोई शिकन आयी हो. ऐसे विरले जोड़े कहां देखने को मिलते हैं जिनमें ऐसी गजब की आपसी समझ हो. सबसे बड़ी बात यह कि उनके परिवार के सभी सदस्यों ने उनके गुणों को आत्मसात किया है. उनके कारण पूरे परिवार का वातावरण ऐसा बन गया है जिससे प्रभावित हुए बिना कोई नहीं रह सकता है. उनके बेटों सौरभ व समर्थ और बेटी शुचि ने भी भाई साहब और भाभी जी के गुणों को आत्मसात किया है.
अनिल भाई साहब में मानवीय मूल्यों के प्रति गहरी आस्था थी. उनके व्यक्तित्व से एक ही तस्वीर उभरती है – वृहद परिवार और समाज के प्रति आदर और पूर्ण समर्पण. अनिल भाई साहब बहुत उदार प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और उनकी दृष्टि में अपने पराये सब एक समान थे. भाई साहब ने अपने क्षेत्र में भारी प्रतिष्ठा अर्जित की और उन्हें अनेक पदकों और पुरस्कारों से नवाजा भी गया. पुराणिक आख्यान है कि पिता एक प्रकार से जड़ हैं और बेटा और बेटी उस जड़ की जगह लेते हैं और यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है. भाई साहब ने भी अपने सारे गुण अपने परिवार को दे दिये हैं. उम्मीद है कि अगली पीढ़ी भी इन विरले गुणों को आत्मसात करेगी और यह परंपरा चलती रहेगी. हम सब भाई साहब के हृदय से ऋणी हैं.
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