चतुर्वेदियों की धरोहर: वेद

चतुर्वेदियों की धरोहर: वेद

 

आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः।

देवा नोयथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे॥

अर्थ: हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से बाधित न किया जा सके एवं अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों। प्रगति को न रोकने वाले और सदैव रक्षा में तत्पर देवता प्रतिदिन हमारी वृद्धि के लिए तत्पर रहें।

 

पृथ्वी पर मानव का सृजन कुछ 23 लक्ष वर्ष पूर्व हुआ। किंतु वेदों की रचना इससे भी पुरानी है। पाश्चात्त्य विद्वानोंने वेदोंका समय पहले ईसासे दो हजार वर्ष पूर्व बताया। किंतु वेदों की आयु इससे कई अधिक है। लोकमान्य तिलक ने अपने 'ओरायन' ग्रन्थ में पाश्चात्त्य मतका प्रमाणपूर्ण खण्डन किया है। किंतु श्वान नक्षत्र को लेकर कालनिर्णय करने के कारण लोकमान्यको भी भ्रम हुआ है। उन्होंने श्वानको एक नक्षत्र माना है, परंतु श्वान तो दो नक्षत्र हैं। ज्यौतिषशास्त्रमें भी उन्हें सदा दो बताया गया है।

 

शतपथ ब्राह्मण में फाल्गुन पौर्णमासी से संवत्सरका प्रारम्भ माना गया है। (एषा ह सांवत्सरस्य प्रथमा रात्रिर्यत्फाल्गुनी पौर्णमासी ॥) लोकमान्यने सप्रमाण सिद्ध किया है कि वैदिक संवत्सर वसन्त-सम्पातसे प्रारम्भ होते हैं। गणित करनेसे फाल्गुन-पूर्णिमाको वसन्त-सम्पात लगभग २२००० वर्ष पूर्व आता है। इसी से वेदों की आयु स्पष्ट होती है। भूगर्भशास्त्र के अनुसार उत्तरी ध्रुव-देश में प्रत्येक दस सहस्र वर्षोंपर पृथ्वी की केन्द्रच्युति होने से हिमपात होता है। प्रथम हिमपात वहां लाखों वर्ष पहले ही हुआ होगा और वेदों में इस प्रथम हिमपात का वर्णन है।

 

शास्त्रों ने स्पष्ट कहा है कि प्रणव (ॐ) से गायत्री और गायत्री महामंत्र से ही समस्त वेद अभिव्यक्त हुए। तथैव गायत्री महामंत्र अति पूजनीय और गूढ़ ज्ञान है। इसलिए समस्त द्विजातियों को नित्य गायत्री उपासना अवश्य ही करणीय है। जिसके बिना ब्राह्मणों का ब्राह्मणत्व अधूरा है। वेदों में सृष्टि के आदि से अंत तक का ज्ञान समाहित है, इसलिए भगवान व्यास महाभारत में कहते हैं: “वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद् यदस्ति च नास्ति च”, अर्थात जो ज्ञान और विषय वेद में नहीं हैं वो कहीं नहीं हैं। वेद ही अखिल धर्म के मूल हैं, उक्तं हि: “वेदोऽखिल धर्ममूलम्”। इसलिए वेदों का माहात्म्य अनंतकोटिगणगुणसंपन्न है।

 

परंपरा के अनुसार वेद आदिकाल में एक ही बृहद ग्रंथ था, जिसका चार भागों में विन्यास महर्षि भगवान कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा त्रेता के अंत में हुआ, जिन्हें आगे वेदव्यास कहा गया। तब से यज्ञों में ऋग्वेद के विद्वानों को होता, यजुर्वेदियों को अध्वर्यु और सामवेद के उच्चारकों को उद्गाता कहा जाता है। वेद अपौरुषेय हैं, यह किसी मनुष्य द्वारा नहीं लिखे गए, अपितु यह परब्रह्म परमेश्वर की श्वासभूत हैं: यस्य निश्वसितं वेदाः। वेदों की आयु प्रजापति ब्रह्मा से भी पुरानी है। श्रीमद्भागवत के अनुसार जब ब्रह्मा जी श्रीभगवान के नाभि कमल से उत्पन्न हुए तो उन्हें सर्वप्रथम श्रीनारायण की श्वास की ध्वनि सुनाई दी, जो उन्होंने आत्मसात करी और यही ध्वनि के शब्द वेद हैं। पितामह ब्रह्मा ने इस अलौकिक ज्ञान को अपने मानस पुत्रों (सप्तर्षिगण) को प्रदान किया, जिन्होंने विलक्षण गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा इसका सतत संरक्षण किया। इसलिए वेद किसी मानव की रचना नहीं और साक्षात् परब्रह्म की श्वास स्वरूप ही है।

 

वेदों में अनुपम ज्ञान निहित है। इस ज्ञान को मानव न पूर्णतः समझ पाए हैं और ना ही समझ सकते हैं। वेदों का अर्थ करना भी किसी प्रकार से न तो उचित है न ही संभव है। सामान्य रूप से वेद आज के विद्वानों को अर्थहीन ही प्रतीत होते हैं। किंतु ऐसा इसलिए है कि वेदों में केवल एक काल का इतिहास या कथा नहीं है, अपितु विभिन्न कालों और विभिन्न युगों का इतिहास तथा कथा निहित है। ऋषियों ने भी अंतःकरण में एकाग्र होकर मंत्रार्थ का दर्शन किया (शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्यासात्संकरस्तत्प्रविभागसंयमात्सर्वभूतरुतज्ञानम्)। इसलिए उनके अर्थ को पूरी तरह से समझने के लिए इन ऋषियों के द्वारा रचित  अन्य ग्रंथों का भी अवलोकन अनिवार्य है। उदाहरणार्थ ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के दृष्ट मंत्रों के अर्थ के लिए योगवशिष्ठ का अध्ययन अनिवार्य है। इसी अलौकिक वैदिक ज्ञान का विस्तार पुराणों में हुआ है। वेद परमेश्वर की आराधना के लिए मंत्ररूप हैं, जिससे निर्विकल्प ईश्वर का आराधन होता है। इनमें अर्थबल से अधिक मंत्रबल है और इन मंत्रों का महत्व भी गूढ़ रहस्य है, जो सामान्य मनुष्यों से परे है। इन मंत्रों का महत्व अमरीकी विद्वान फ्रिट्स स्टाल ने अपनी पुस्तक “Discovering the Vedas” और अग्निचयन नामक यज्ञ पर अपनी शोध में प्रकाशित किया है।

 

वेद परमात्मा के अंश हैं इसलिए उन्हीं के समान अनादि अनंत हैं। जो वेदों का ज्ञान आज हमारे पास है वो पूर्ण हैं ऐसा मानना भी अनुचित है। वेदों का ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से प्रसारित हुआ है। इसी कारणवश इनमें कुछ पाठांतर और भेद व्याप्त हैं, जिन्हीं विभिन्न शाखाओं के माध्यम से संजोया गया है। वेद की शाखाओं का इतना महत्व है कि इनके बिना वेद का अस्तित्व अधूरा है। विभिन्न शाखाओं में जो ज्ञान व्याप्त है वह ज्ञान ही वेदों को पूर्ण करता है। इनमें से कुछ शाखाएं आज जीवित हैं किंतु दुर्भाग्यवश कुछ मृत हो चुकी हैं। महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रंथ महाभाष्य में ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 100, सामवेद की एक सहस्त्र तथा अथर्ववेद की 9 शाखाओं का उल्लेख है।

 

वर्तमान में ऋग्वेद की केवल 2: शाकल और बाष्कल शाखा प्रचलित है। यहां उल्लेखनीय है कि माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण ऋग्वेद की आश्वलायनी शाखा से संबद्ध हैं, जो मृतप्राय है। आश्वलायनी शाखा की संहिता इतिहास के पृष्ठों में लुप्त हो गई है और वर्तमान में इस शाखा का केवल गृह्य सूत्र और श्रौत सूत्र उपलब्ध हैं। यजुर्वेद के दो प्रमुख पाठभेद शुक्ल यजुर्वेद तथा कृष्ण यजुर्वेद के नाम से प्रसिद्ध हैं। शुक्ल यजुर्वेद उत्तर भारत में प्रचलित है, जिसकी आधुनिक समय में 2 शाखाएं हैं: माध्यन्दिनी और काण्व शाखा। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं जीवित हैं: तैत्तिरीय, मैत्रेयाणी, कठ और कपिष्ठल। सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं का वर्णन मिलता है। सामवेद के बृहद विस्तार के कारण ही भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने उद्घोष किया है: वेदानां सामवेदोऽस्मि , अर्थात “वेदों में मैं सामवेद हूं”। किंतु हमारा दुर्भाग्य यह है कि आज इसकी केवल 3 शाखाएं विद्यमान हैं: कौथुम, राणायणीय तथा जैमिनी। माथुर चतुर्वेदी समाज में भारद्वाज गोत्रीय विप्रजन राणायणीय  शाखा से संबद्ध हैं। अथर्ववेद की 2 शाखाएं: शौनक और पैप्पलाद, वर्तमान में प्रचलित हैं।

 

इन विभिन्न शाखाओं में न केवल पाठांतर हैं अपितु स्वर और मात्राओं का भी अंतर है। इन शाखाओं में उच्चारण भेद भी है। इस उच्चारण और स्वर भेद को मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। इन शाखाओं में संहिता के अतिरिक्त ब्राह्मण ग्रंथों का भी संकलन है। इन ग्रंथों में ब्राह्मणों के लिए नित्यकर्मों तथा विशिष्ट अनुष्ठानों का प्रतिपादन हुआ है। इनमें श्रौतसूत्र: जो कि यज्ञादि कर्मकांड का उल्लेख करता है, तथा गृह्यसूत्र: जो घर में करने वाले नित्यकर्मों का प्रतिपादन करता है, सम्मिलित हैं। यह नित्यकर्म और अनुष्ठान ही ब्राह्मण को “विप्र” बनाते हैं और तेज वृद्धि करते हैं। किंतु कलियुग का मंदभाग्य है कि ब्राह्मण सब आध्यात्मिक दायित्वों का परित्याग कर चुके हैं।

 

समाज के परम आदरणीय पूज्यपाद गुरुवर डॉ० सहदेव कृष्ण चतुर्वेदी के हाल ही के लेख में उन्होंने स्पष्ट किया कि वेद के दृष्टा ऋषि महर्षि हमारे समाज के ही पूर्वज थे, जिन्होंने कठिन परिश्रम तथा अपने तपोबल से इन शाखाओं का संरक्षण किया। उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद में दस मंडल हैं, जिसमें द्वितीय मंडल से सप्तम मंडल तक विशिष्ट ऋषियों की पारिवारिक धरोहर रही है। गर्व का विषय है ऋग्वेद के गूढ़ ज्ञान को तपस्या से प्राप्त करने वाले ऋषि हमारे पूर्वज थे। इसके साक्ष्य के अनुरूप द्वितीय मंडल की प्राप्ति भार्गव गोत्रियों के पूर्वज ऋषि गृत्समद को हुई। तृतीय मंडल ब्रह्मर्षि विश्वामित्र तथा उनके पुत्र-पौत्रों द्वारा दृष्ट हुआ, विश्वामित्र ही सौश्रवस गोत्रीय माथुरों के पूर्वज हैं, इस ही लिए सौश्रवस गोत्रीयों का एक प्रवर विश्वामित्र है। चतुर्थ मंडल धौम्य गोत्रियों से संबद्ध है, जिस के दृष्टा ऋषि वामदेव गौतम हैं। ऋषि अत्रि, जो कि दक्ष गोत्रियों के पूर्वज थे, को पंचम मंडल दृष्ट हुआ। षष्ठम मंडल वेदगर्भ ऋषि भरद्वाज को प्राप्त हुआ, जो भारद्वाज गोत्र के प्रवर्तक हैं। इस मंडल का संबंध कुत्स गोत्रियों से भी है, क्योंकि कुत्स गोत्रियों के पूर्वज महर्षि अंगिरा थे जो कि महर्षि भरद्वाज के पितामह थे। ऋग्वेद का सप्तम मंडल ब्रह्मर्षि वसिष्ठ को प्राप्त हुआ, जो कि माथुर चतुर्वेदी समाज के वशिष्ठ गोत्र के प्रवर्तक हुए। इस से स्पष्ट होता है कि माथुर चतुर्वेदियों का इतिहास अति पुरातन है।

 

किंतु सामाजिक दुर्भाग्य का विषय है कि आज इस समाज का न तो अपनी इस धरोहर का ज्ञान शेष है न ही अभिरुचि। उन्हें इसका महत्व भी ज्ञात नहीं और न ही इसके लिए श्रद्धा है। तामसाहार भी अब चतुर्वेदियों में पूर्णरूपेण व्याप्त है। वेदों का ज्ञान तो दूर वेदों की विषयवस्तु भी आज के माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों के बुद्धि से नष्ट हो गई है। नवयुवक पथभ्रष्ट हैं और अपनी पूजनीय संस्कृति को त्याग पश्चिमाभिमुख बैठे हैं। संध्यादि आवश्यक नित्यकर्म का ज्ञान तो वयोवृद्धों के पास भी शेष नहीं है। ऋग्वेद की आश्वालायनी शाखा तो मृत हो ही गई है, किंतु सौभाग्य से सामवेद की राणायणीय शाखा अभी जीवित है। हम सबको चाहिए कि मिल के समाज की इस अपूर्व धरोहर का सचेत संरक्षण करें और मिल के इस कार्य में अपने गुरुजनों की सहायता करें। मेरी आयु के नवयुवकों को भी इस ज्ञान को प्रसारित करें ताकि यह धरोहर जीवित रहे और हम गर्व से “चतुर्वेदी” कहे जा सकें।

 

इला सरस्वती मही तिस्त्रो देवीर्मयोभुवः।

अर्थ: मातृभूमि, मातृसंस्कृति और मातृभाषा—ये तीनों सुखद होती हैं।

 

 

 

जय द्वारिकाधीश

जय जमुना मैया

 

आराध्य चतुर्वेदी

जन्म: 8 नवंबर 2001

नोएडा, उत्तर प्रदेश

Aradhya Chaturvedi